अनुक्रमणिका
| १ | राष्ट्रीयत्वाची स्फुर्ती | ब्रह्मर्षी श्री अण्णासाहेब पटवर्धन यांचे चरित्र | १ |
| २ | वेडे वाकुळे गाईन । परि तुझा म्हणवीन !! | श्री अप्रबुद्ध | २-८ |
| ३ | गुणकर्म विभागश : चा घोळ व गोंधळ | ब. स. येरकुंटवार | ९-१७ |
| ४ | विपरित की विकृत? | प्र.दे.कोलते | १८-२३ |
| ५ | शंका समाधान | ले. तत्वदर्शी | २४-३० |
| ६ | आधुनिक अर्थशास्त्राचा सदोष दृष्टीकोण | प्रा. भा.ह.मुंजे | ३१-३८ |
| ७ | राष्ट्रीय संघटनेचे राजगुह्य | एक वर्गणीदार विलेपार्ले | ३९-४७ |
| ८ | सार्थक (कविता) | यशवंत पारखी | ४८ |
| ९ | क्रांति : एक विघातक सिद्धांत | हरिहर पुनर्वसु | ४९-५५ |
| १० | भरत भेट | विष्णू शर्मा | ५६-५९ |
| ११ | राम – झरोक्या’ तुन | आत्र्जनेय | ६०-६२ |
| १२ | भारतीय धारणा समिती नागपुर वृत्तविशेष | ६३ |




