अनुक्रमणिका
| १ | संपादकीय | ३-६ | |
| २ | अपसिद्धांन्ताचे शास्त्र | श्री अप्रबुद्ध | ७-१६ |
| ३ | आता थोडे राहिले आहे! | प्रा.पां.कृ. सावळापुरकर | १७-२३ |
| ४ | आंग्ल संस्कृतीची विषबीजे व त्याचे निर्मूलन | रा.द.दामले | २४-२९ |
| ५ | शंका समाधान | ले. तत्वदर्शी | ३०-३५ |
| ६ | जीवनमान | प्रा. भा.ह. मुंजे | ३६-४३ |
| ७ | आमची तरुण पिढी! | सुरेश पंढरीपांडे | ४४-४७ |
| ८ | आधुनिक संशोधन व त्याचा हेतू | प्रा. नारायणशास्त्री द्रविड | ४८-५५ |
| ९ | जन्म घ्यायचा असेल जर तर (कविता) | सौ. उषा लिमये | ५६ |
| १० | साम्यवादाचे खुळ | प्रा. गो.मा.कुळकर्णी | ५७-६३ |
| ११ | दासोपंतांनी घडविलेले- सतराव्या शतकांतील अभिरुचीचे दर्शन | प्रा. भा.श्री.परांजपे | ६४-७३ |
| १२ | ’न्याय मंदिरात’ | ले. समीक्षक | ७४-८० |
| १३ | मराठी संतांचे चातुर्वर्ण्यानुसरण | प्रा.श्री.मा.कुळकर्णी | ८१-८८ |
| १४ | कला आणि जीवन : कांही विचार | प्रा. व कृ वर्हाडपांडे | ८९-९८ |
| १५ | भारतीय उत्सवाचे मुळ स्वरुप | पं दा. प्र. पाठकशास्त्री | ९९-१०१ |
| १६ | दैववादाचे कुंभाड | प्र.दे.कोलते | १०२-१०८. |
| १७ | राम – झरोक्या’ तुन | आत्र्जनेय | १०९ |




